एक शहर को याद करता हूँ
लगता है रूठा है मुझसे
मानाने निकला हूँ
पोहोचता हूँ पुरानी गलियो में
जहां बच्चो कि हस्सी से नींदें खुलती थी
गलियां तोह वही है मगर बात कुछ वह नहीं
अब शोर में भी सन्नाटे का सुर है कहीं
एक शहर को याद करता हूँ
पोहोचता हूँ उस चाय कि टपरी पे
जहा चूल्हे पे खुशियाँ उबलती थी
टपरी तोह वही है मगर बात कुछ वह नहीं
रास्ते कुछ बढ़ गए है और कुर्सियों की जगह नहीं
एक शहर को याद करता हूँ
शहर तोह वही है मगर
शहर कुछ वह नही
बाघों में वह रंग नहीं है
दिरखतो में वह खुशबू नहीं
इतना लम्बा तोह ना गया था मैं
की वापस आओ तोह शहर न हो
एक शहर को याद करता हूँ
लगता है रूठा है मुझसे
मनाने निकला हूँ
by chhavidoonga
Beautifully written…